अब तो बस एक ही धुन है कि मदीना देखूँ
अब तो बस एक ही धुन है कि मदीना देखूँ
मेरे मौला ! मेरी आँखें मुझे वापस कर दे
ता-कि इस बार मैं जी भर के मदीना देखूँ
अब तो बस एक ही धुन है कि मदीना देखूँ
जाऊँ मैं शहर-ए-नबी गुंबद-ए-ख़ज़रा देखूँ
और फिर क़ब्र-ए-हसन, तुर्बत-ए-ज़हरा देखूँ
अब तो बस एक ही धुन है कि मदीना देखूँ
ढूँड लूँ अपने गुनाहों की मु'आफ़ी की सबील
रहमत-ए-रहमत-ए-कौनैन का जल्वा देखूँ
अब तो बस एक ही धुन है कि मदीना देखूँ
वाँ से फिर जा के नजफ़ ज़ख़्म दिखाऊँ अपने
और नज़दीक से ही अपना मसीहा देखूँ
अब तो बस एक ही धुन है कि मदीना देखूँ
फिर शहंशाह-ए-नजफ़ से मैं इजाज़त ले कर
कर्बला जा के मैं शब्बीर का रौज़ा देखूँ
अब तो बस एक ही धुन है कि मदीना देखूँ
अश्क बरसाऊँ ग़म-आल-ए-मुहम्मद पे वहाँ
अपनी तारीक निगाहों में सवेरा देखूँ
अब तो बस एक ही धुन है कि मदीना देखूँ
बस इसी बात पे जीता हूँ, हमीद-ओ-'अब्दाल !
इन तमन्नाओं को पूरा कभी होता देखूँ
शायर:
हमीद रज़ा (स्कर्दू)
ना'त-ख़्वाँ:
अब्बास अनंद अब्दाली